औरत को संरक्षण देने वाला फैसला

कमलेश जैन, अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट
देश की शीर्ष अदालत ने 15 से 18 वर्ष की उम्र में शादी करने वाली महिलाओं को संरक्षण देते हुए बुधवार को जो फैसला सुनाया, वह ऐतिहासिक है। अब 18 वर्ष से कम उम्र की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाना बलात्कार माना जाएगा। इस फैसले का बड़ा असर बाल विवाह पर पड़ेगा। चोरी-छिपे या अनजाने में होने वाली ऐसी शादियां अब काफी हद तक बंद हो जाएंगी। हमारे समाज में नाबालिगों की शादी इसलिए भी होती आई है, क्योंकि पहले पत्नी के साथ संबंध बनाने को लेकर कोई दुविधा नहीं थी। मगर अब यदि नाबालिग पत्नी शादी के एक साल के अंदर अपने यौन संबंध को लेकर कोई शिकायत करती है, तो पति पर बलात्कार का मामला चल सकता है, और बलात्कार में अपने यहां कठोर सजा का प्रावधान है।सवाल यह है कि अदालत को आखिर ऐसा फैसला देने की जरूरत क्यों पड़ी? दरअसल, यह आदेश हमारे भारतीय दंड विधान की एक विसंगति के संबंध में आया है। आईपीसी की धारा 375(2) कहती है कि 15 से 18 साल आयु वाली पत्नी से यदि पति संबंध बनाता है, तो इसे दुष्कर्म नहीं माना जाएगा, जबकि बाल विवाह कानून के मुताबिक, शादी के लिए महिला की उम्र कम से कम 18 साल होनी चाहिए। यानी यह एक चोर रास्ता था, जो अब तक खुला हुआ था। ताजा अदालती फैसले ने ऐसी शादियां करने वाले लोगों के लिए यह चोर दरवाजा अब बंद कर दिया है।
अब उनमें भय बना रहेगा कि यदि शादी हो गई और शारीरिक संबंध बनाया गया, तो पत्नी द्वारा शिकायत करने पर उन्हें जेल की हवा खानी पड़ सकती है। शादी के बाद आमतौर पर पति-पत्नी में संबंध बनते ही हैं। देखा जाए, तो शादी का मतलब ही है शारीरिक संबंध बनाने की स्वीकृति, मगर अब इन सब पर कानून की पैनी नजर रहेगी।यह सही है कि अपने देश में बाल विवाह रोकने के लिए ‘बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006’ बना है। यह कानून 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों और 21 वर्ष से कम उम्र के लड़कों की शादी को बाल विवाह मानता है। यह व्यवस्था देता है कि 18 साल से कम उम्र की लड़कियां विवाह से मना कर सकती हैं। वे चाहें, तो अदालत में अर्जी देकर अपना विवाह रद्द करा सकती हैं। मगर हकीकत यह भी है कि शादी हो जाने के बाद उस पर अपने परिवार, समाज और ससुराल, सबका दबाव बढ़ जाता है। उसके लिए अदालत में जाने का रास्ता आसान नहीं होता। आस-पड़ोस या परिवार में किसी जागरूक व्यक्ति के हस्तक्षेप से उसकी शादी मंडप पर ही भले ही रुक जाए, पर एक बार शादी हो गई, तो उसे न मानने का विकल्प लड़कियों के पास शायद ही होता है। शादी तोड़ पाना तो और मुश्किल है, जबकि बड़ा सच यही है कि कोई भी लड़की कम उम्र में शादी नहीं करना चाहती। वह पढ़ना चाहती है और कुछ करने की तमन्ना रखती है। इसके अलावा, कम उम्र में शादी के लिए वह न तो शरीर से परिपक्व होती है और न ही परिवार का बोझ उठाने के लिए मानसिक तौर पर। मगर किसी न किसी लालच से लड़कियों को कम उम्र में ही पारिवारिक बंधनों में बांधने का प्रयास होता रहता है। ताजा फैसला ऐसी कोशिश करने वालों पर दोहरे शिकंजे के रूप में आया है।कम उम्र में शादी का एक और दुष्परिणाम है। जल्दी शादी का मतलब है, जल्दी बच्चे पैदा होना, यानी जनसंख्या का बढ़ना। दुखद यह है कि सरकार बढ़ती आबादी को थामने की कोशिश करती नहीं दिख रही। मानो उसे कोई चिंता ही न हो कि मानव संसाधन का कैसे इस्तेमाल करना है? उसकी जरूरतें कैसे पूरी करनी हैं? यह फैसला बताता है कि अब यह जिम्मेदारी भी अदालत लेने को तैयार है। इससे कई स्वास्थ्यगत परेशानियों से भी हम बच सकेंगे। कम उम्र में बच्चे पैदा करने से जच्चा और बच्चा, दोनों की सेहत बिगड़ती है। मां, जहां एनीमिया जैसी बीमारियों का शिकार बनती हैं, वहीं बच्चा कुपोषण का। 2006 का कानून बाल विवाह को प्रोत्साहित करने वालों के लिए सजा का प्रावधान जरूर करता है। दोषी पाए गए ऐसे व्यक्ति को दो साल या उससे ज्यादा की कैद और एक साल तक का जुर्माना भी लग सकता है। मगर दिक्कत यह है कि पर्याप्त प्रशासनिक कार्रवाई न होने की वजह से ऐसी शादियां हमारे समाज में आज भी धड़ल्ले से हो रही हैं।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे, 2016 का ही आंकड़ा बताता है कि हमारे देश में 27 फीसदी लड़कियों की शादी 18 वर्ष से कम उम्र में कर दी जाती है।कोई भी कानून तभी बेहतर काम कर सकता है, जब उसे समाज का साथ मिले। दुर्भाग्य से कुछ मामलों में हमारा समाज काफी पीछे है। दहेज प्रथा निषेध अधिनियम का ही उदाहरण लें। यह दहेज लेने और देने, दोनों को प्रतिबंधित करता है। मगर हमारे समाज ने आज भी दहेज को स्वीकृति दे रखी है। पढ़े-लिखे व धनाढ्य तबकों में भी यह आम है। हमारा समाज इतना संवेदनहीन हो गया है कि दहेज हत्या जैसी खबरों से उसमें आज भी कोई हलचल नहीं होती। दुर्भाग्य है कि दहेज लेन-देन से जुड़ी ऐसी घटनाओं को आज भी सामान्य माना जा रहा है। संभवत: इसकी वजह ऐसी घटनाओं में वृद्धि होना है या फिर आबादी के बढ़ते जाने का दबाव।
कहते हैं कि समाज पहले जागरूक बनता है, फिर कानून उसकी राह का हमसफर बनता है। लेकिन अपने देश में स्थिति इसके विपरीत है। यहां कानून आगे बढ़ता है और समाज उसके पीछे-पीछे चलता है। फिर भी बुधवार का अदालती आदेश काफी उम्मीद बंधाता दिखता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि एक बार जब कानून बन जाता है, तो इसका कहीं न कहीं असर पड़ता ही है। समाज भी धीरे-धीरे ही सही, उसे मानने लगता है। आखिर सती प्रथा जैसी बर्बर परंपरा को हमने ही तो खत्म किया है। उम्मीद है, बाल विवाह भी हमारे समाज में अब जल्द ही बीते दिनों की बात होकर रह जाएगा।


 दूरगामी असर

कहा जा सकता है कि बात सिर्फ एक कानूनी नुक्ते या विरोधाभास की है, पर बुधवार को अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस पर सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, उसकी गूंज दूर तक सुनाई देगी। नाबालिग लड़कियों के बारे में भारतीय दंड संहिता यह कहती है कि उनके साथ बनाया गया शारीरिक संबंध बलात्कार माना जाएगा। इसमें उनकी सहमति या असहमति का कोई सवाल नहीं है। लेकिन दंड संहिता की धारा 375 में ही एक अपवाद भी दिया गया है कि अगर कोई व्यक्ति 15 से 18 साल की उम्र की पत्नी से शारीरिक संबंध बनाता है, तो उसे बलात्कार नहीं माना जाएगा। यह अपवाद कई तरह से विवाद का कारण बना हुआ था। ‘इंडिपेंडेंट थॉट’ नाम के एक एनजीओ ने इसे अदालत में चुनौती दी थी। अदालत ने इस अपवाद को गलत ठहराया है। एनजीओ का तर्क था कि यह कम उम्र की लड़की के साथ दोहरा अत्याचार है। एक तो कानून का उल्लंघन करके उसका बाल विवाह कर दिया जाता है और उस पर परिवार की जिम्मेदारी थोप दी जाती है, दूसरे यह अपवाद शारीरिक संबंध के मामले में अपने बचाव का अधिकार भी छीन लेता है। याचिका में यह कहा गया कि जब कानून यह मानता है कि 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की इतनी अपरिपक्व होती है कि उसकी सहमति या असहमति का कोई अर्थ नहीं, तो फिर शादी के बाद अपरिपक्वता का यह तर्क क्यों बदलना चाहिए? अदालत ने भी इस दलील को सही माना है।
ठीक यहीं, यह सवाल हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि सबसे पहले तो ऐसा अपवाद कानून में रह कैसे गया? और दूसरा, ऐसा मामला अदालत में पहुंचा ही क्यों? बाल विवाह रोकने का कानून हमने इस देश में 88 साल पहले ही उस समय बना लिया था, जब यह देश आजाद भी नहीं हुआ था। 11 साल पहले हमने इस कानून में संशोधन करके इसे और कड़ा बना दिया था। लेकिन इसके बावजूद बाल विवाह को रोकने में हम कामयाब नहीं रहे हैं। खुद सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि आज भी देश में 27 प्रतिशत लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है। कुछ क्षेत्रों में यह चलन कम है और कुछ में बहुत ज्यादा, लेकिन पूरे देश में ही यह कुरीति किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद है। हो सकता है कि यह पिछड़े इलाकों और गांवों में कुछ ज्यादा हो, लेकिन उन शहरों में भी यह जारी है, जिन्हें हम स्मार्ट सिटी का दर्जा देने की कोशिश कर रहे हैं। आज भी अगर देश के उच्चतम न्यायालय को अपना कीमती समय ऐसे मसलों पर खर्च करना पड़ रहा है, तो यह हमारे समाज और भारतीय राष्ट्र-राज्य की भी असफलता है कि वह अपने एक प्रगतिशील कानून को लागू करने में पूरी तरह नाकाम रही है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का असर दूर तक हो सकता है, क्योंकि इसके कई अर्थ निकाले जाएंगे। फैसला अप्रत्यक्ष रूप से यह भी कहता है कि कुछ खास स्थितियों में विवाह संस्था के भीतर शारीरिक संबंधों को बलात्कार का दर्जा दिया जा सकता है। कानून की भाषा में इसे ‘मैरिटल रेप’ कहते हैं, जिसकी लड़ाई महिला अधिकार संगठन काफी समय से लड़ रहे हैं। उनका तर्क है कि अगर महिला की सहमति नहीं है, तो ऐसे शारीरिक संबंध को बलात्कार ही माना जाना चाहिए, भले ही वह विवाह संस्था के भीतर हो। जस्टिस जेएस वर्मा समिति ने 2013 में ही इसके लिए कानून में संशोधन की सिफारिश की थी। कई देशों में तो ऐसा कानून भी है। लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय में सरकार ने यह तर्क दिया था कि भारत में विवाह एक पवित्र संस्था है, जिसे बलात्कार के आरोप से दूर रखा जाना चाहिए। मगर यह तर्क भी अब गिर चुका है।
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