तो नहीं रहेगी आजादी


फैजान मुस्तफा
एक राष्ट्र एक कानून नारा अच्छा लगता है। पर निजी कानून की बात छोड़ दें तो देश में समान आपराधिक कानून तक एक नहीं है। वो इसलिए नहीं है क्योंकि कानून का जो विषय है वो समवर्ती सूची में नहीं है। यानी सभी विधान सभाएं इस पर कानून बना सकती हैं। आईपीसी और सीआरपीसी में 100 से ज्यादा संशोधन राज्य सरकारों ने किए हैं। एक बार फिर संशोधन हुआ है। यह संशोधन आईपीसी और सीआरपीसी में हुआ है। सीआरपीसी में जिसे 1973 में संसद ने बनाया था। और आईपीसी में जो 1860 में बना था। संविधान ने हमारी संसद और विधान सभाओं को आपातकालीन हालात में भी विधायी कार्य करने की अनुमति दी है, जिसमें उन्हें यह अधिकार दिया गया है कि वो अध्यादेश की घोषणा कर सकते हैं। लेकिन राजस्थान सरकार जिस आनन-फानन में अध्यादेश लेकर आई, उसकी कोई जरूरत नहीं थी। कोई आसमान नहीं टूट रहा था। 7 सितम्बर को जब अध्यादेश लाया गया, जबकि 23 अक्टूबर को विधान सभा का सत्र निर्धारित था। इस पूरे मामले में न सिर्फ राज्य सरकार बल्कि केंद्र सरकार भी शामिल है क्योंकि इस अध्यादेश में साफ साफ लिखा है कि इसके बारे में इसमें संविधान के अनुछेद 213 के तहत राष्ट्रपति से अनुमति ली गई है। हम सभी को मालूम है कि राष्ट्रपति केंद्र के आग्रह पर ही किसी कानून की अनुमति देते हैं। आईपीसी जो पूरे देश में लागू है, उसके अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकारी कर्मचारी के न्यायिक काम में बाधा डालता है, उस पर अधिकतम 6 महीने की सजा या 1000 रुपये जुर्माना का प्रावधान है। लेकिन वर्तमान अध्यादेश जो अब कानून बनने जा रहा है और न केवल कानून बल्कि कठोर कानून बनने जा रहा है। जिसमें 2 साल की सजा का प्रावधान है। यानी सजा में तीन गुना बढ़ोत्तरी। जबकि जुर्माने की राशि के बारे में फिलहाल कुछ भी स्पष्ट तौर पर बताया नहीं गया है। इसके अलावा सीआरपीसी के अनुच्छेद 191 यह कहता है कि कोई भी अदालत किसी मामले में किसी सरकारी कर्मचारी, मजिस्ट्रेट, जज के बारे में कोई जांच का आदेश या सुनवाई नहीं कर सकती है, जब तक की संबंधित अधिकारी की राज्य सरकार या केंद्र सरकार से अनुमति नहीं ले ली जाती है। यानी 197 का कानून अदालत के बारे में है और एफआईआर करने से नहीं रोकता। लेकिन इसके बावजूद एक और प्रावधान सीआरपीसी 190 का है, जिसके अंतर्गत मजिस्ट्रेट और पुलिस अधिकारी को जांच का अधिकार दिया गया है। यहां मैं एक चीज स्पष्ट कर दूं। आपराधिक प्रक्रिया संहिता में दो तरीके के अपराध के बारे में बात की गई है।संज्ञेय और गैर-संज्ञेय । गैर-संज्ञेय अपराध छोटे अपराधों की श्रेणी में आता है। यानी आपने किसी को थप्पड़ मार दिया। इसमें बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के पुलिस अधिकारी एफआईआर दर्ज नहीं कर सकता। संज्ञेय अपराध; जिसमें हत्या, बलात्कार, अपहरण जैसे मामले आते हैं। उसमें पुलिस बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के जांच कर सकता है। इसके अनुच्छेद 156 में अब एक संशोधन राज्य सरकार ने किया है। इसी तरह अनुच्छेद 190 के तहत मजिस्ट्रेट को यह अधिकार है कि संज्ञेय अपराध के मामले जो उसके संज्ञान में आता है, या कोई शिकायत दर्ज करता है उस मामले में वो जांच का आदेश दे सकता है। राजस्थान के इस कानून ने जो मजिस्ट्रेट और पुलिस को अधिकार दिए गए थे उनको सीमित किया गया है। इसलिए कहा जा रहा है कि कहीं-न-कहीं यह अध्यादेश संवैधानिक नहीं है। क्योंकि यह न्यायपालिका की शक्तियों को सीमित कर रहा है। यह तो बात हो गई पुलिस और मजिस्ट्रेट की। अब बात करते हैं सोशल मीडिया की। जिसमें आरोपी की पहचान मीडिया में सार्वजनिक नहीं की जा सकती।
प्रिंट नहीं की जा सकती। यानी सोशल मीडिया के किसी भी प्लेटफार्म में कुछ भी लिखा नहीं जा सकता या प्रकाशित नहीं किया जा सकता है। यानी मीडिया में यह भी नहीं लिखा जा सकता कि उस व्यक्ति के बारे में सरकार ने अपनी सहमति देने से इनकार कर दिया है। इसका मतलब यह है कि हम अभिव्यक्ति की आजादी के ऊपर बहुत बड़ा कुठाराघात कर रहे हैं। मेरी समझ में अभिव्यक्ति का जो अधिकार है वो अपने आप में इतना बड़ा अधिकार है कि उसे मैं प्राथमिक स्वतंत्रता कहता हूं। संविधान सभा में भी यह बात कही गई है जब धर्म की स्वतंत्रता पर बात हो रही थी कि धर्म की स्वतंत्रता को लिखने की जरूरत ही नहीं है। क्योंकि धर्म की स्वतंत्रता तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ही निहित है। हाल ही में निजता के अधिकार के मामले में फैसले में जस्टिस होम साहब के 1890 के लेख का जिक्र किया गया, उन्होंने ‘‘विचारों के बाजार’ की बात की थी, जिसके अनुसार विचारों को आने दीजिए। और लोगों को उसपर राय बनाने का मौका दीजिए। जो सच है वो सबको दिख जाएगा। हमारे देश में एफआईआर दर्ज करना बेहद ही मुश्किल काम है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। खासकर अगर वो एफआईआर किसी प्रभावशाली व्यक्ति के बारे में होगी; विशेषकर किसी जज, राजनेता इत्यादि के बारे में तो यह लोहे के चने चबाने से कम नहीं होता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसले में कहा है कि यह पुलिस का फर्ज है कि जब भी कोई व्यक्ति एफआईआर लिखवाने आए तो उसे चाहिए कि एफआईआर दर्ज करे। 2013 में ललिता कुमारी के मामले में भी उसने यह बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यह भी कहा था कि पुलिस को यह प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं है कि एफआईआर सही है या गलत है, विश्वसनीय है या नहीं है। अगर कोई राज्य को या पुलिस को किसी अपराध होने की जानकारी दे रहा है तो उसे एफआईआर दर्ज करना पड़ेगा। कानून समान समझ पर आधारित होता है। इसलिए कानून की नजर में एफआईआर कोई सबूत नहीं बल्कि सूचना है। इसका सीधा सा मतलब है कि कानून हरकत में आ जाए। इसलिए अच्छी बात है कि राजस्थान सरकार ने इस बिल को अब सलेक्ट कमिटी के पास भेजकर ठंडे बस्ते में डाल दिया है। कुल मिलाकर भाजपा शासन को इस अध्यादेश को पूरी तरह वापस लेना चाहिए।

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