विसंगति की समाप्ति

सुप्रीम कोर्ट ने दूरगामी महत्व का फैसला दिया है। इससे बच्चों को यौन अपराधों से बचाने का कानून अधिक सुसंगत बनेगा। साथ ही बाल विवाह के प्रचलन के कारण समाज में जारी विसंगति पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी। यौन अपराधों से बाल संरक्षण अधिनियम-2012 (पॉस्को) के तहत 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाना संगीन जुर्म है। लेकिन यदि वह लड़की विवाहित हो और 15 साल की हो चुकी हो, तो उसके पति को उसके साथ ऐसा रिश्ता बनाने की छूट मिल जाती थी। यह एक अवांछित विसंगति थी। अगर 18 साल की आयु तक कोई लड़की यौन संबंध की सहमति देने योग्य नहीं मानी जाती, तो फिर उसके विवाहित हो जाने से भी इस हकीकत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी तरह भारत में विवाह की वैधानिक उम्र लड़कों के लिए 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल है। दुर्भाग्यपूर्ण यथार्थ यह है कि इस कानून का खूब उल्लंघन होता है। लेकिन अब 18 साल से छोटी किसी भी लड़की से यौन संबंध बनाना दुष्कर्म माना जाएगा, भले ही वो युवती पत्नी ही क्यों न हो।
सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले का अर्थ है कि बाल विवाह के खिलाफ पहले से मौजूद प्रावधानों के अलावा एक और कठोर प्रावधान अस्तित्व में आ गया है। अब यह कानून लागू करने वाली एजेंसियों की जिम्मेदारी है कि वे इन प्रावधानों पर सख्ती से अमल सुनिश्चित कराएं। वैसे अनुभव यही है कि सामाजिक परंपरा और आम संस्कृति से जुड़े मामलों में कानून या न्यायिक निर्णय पूर्ण प्रभावशाली नहीं हो पाते। खासकर महिलाओं की सामाजिक हैसियत सुधारने से संबंधित वैधानिक प्रावधान भारतीय समाज में अपने उद्देश्य को अब तक पूरी तरह प्राप्त नहीं कर पाए हैं। बाल विवाह और दहेज प्रथा का जारी रहना इस बात की मिसाल है। प्रधान न्यायाधीशजस्टिस दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस तथ्य का जिक्रकिया कि आजादी के 70 साल बाद भी बाल विवाह सामाजिक यथार्थ बने हुए हैं। ऐसा क्यों है, इस पर पूरे समाज को आत्म-मंथन करना चाहिए।
दरअसल, असली चुनौती सामाजिक मानसिकता को बदलने की है। इसके लिए समाज सुधार और जन-जागरूकता के व्यापक आंदोलनों की आवश्यकता है। अफसोस की बात यह है कि आजादी के बाद समाज सुधार के महत्व को भुला दिया गया। उधर, भारतीय दंड संहिता की (दुष्कर्म विरोधी) धारा 375 में 15 साल से ऊपर की विवाहिताओं से पति द्वारा यौन संबंध बनाने की छूट बरकरार रखी गई। सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही इस मामले में कानून निर्माताओं के विवेक पर सवाल खड़ा किया। अब अपेक्षित है कि सरकारें सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमल को सुनिश्चित करने के उपयुक्त उपाय करें। पुलिस व्यवस्था को चुस्त करने के साथ-साथ लोगों में जागरूकता लाने का व्यापक अभियान उन्हें शुरू करना चाहिए। नाबालिग युवतियों को जबरन यौन संबंधों की मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा से बचाना हर सभ्य समाज का दायित्व है। अब वक्त आ गया है, जब हम सब यह दायित्व उठाएं और सुप्रीम कोर्ट की भावना के मुताबिक कानून पर अमल सुनिश्चित करने में सहायक बनें।

Comments

Popular Posts