ई-वाहन के बजाय ई-परिवहन पर दिया जाए ध्यान

ई-वाहन के बजाय ई-परिवहन पर दिया जाए ध्यान

      सुनीता नारायण
केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के हालिया बयान ने कबूतरों के दड़बे में बिल्ली को छोडऩे का काम किया है। उन्होंने वाहन उद्योग के एक सम्मेलन में कहा कि वह वैकल्पिक ईंधन के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए वाहन उद्योग को ‘मजबूर’ करने से भी नहीं हिचकिचाएंगे। गडकरी ने कहा, ‘आप चाहें या न चाहें लेकिन भारत प्रदूषण पर काबू पाने और तेल आयात बिल में कटौती के लिए इलेक्ट्रिक और जैव-ईंधन से चलने वाले वाहनों की दिशा में आगे बढ़ेगा।’ उन्होंने भारतीय ऑटोमोबाइल उत्पादकों के संगठन सायम के सालाना समारोह में यह बयान देकर वाहन उद्योग में खलबली मचा दी। वाहन कंपनियों का कहना है, ‘हम पहले से ही स्वच्छ वाहन तकनीक की दिशा में आगे बढऩे के लिए जरूरत से ज्यादा प्रयास कर रहे हैं।’हकीकत तो यह है कि हमारा वाहन उद्योग नीतिगत अनिश्चितता को लेकर काफी शोर मचाता है। इस उद्योग के पास स्वच्छ ईंधन की दिशा में आगे बढऩे की एक योजना रही है लेकिन या तो इसने उसे नजरअंदाज किया या फिर जानबूझकर उसे कमजोर करने की कोशिश की। जब ऐसा नहीं हो सका तो शोर मचाना शुरू कर दिया। मसलन, ईंधन एवं उत्सर्जन के बीएस-4 मानकों को भारत में वर्ष 2010 में लागू किया गया था। मार्च 2017 तक पूरे देश में इस मानक को लागू हो जाना था। लेकिन उद्योग ने इसके लिए तैयारी करने के बजाय मान लिया कि अधिक स्वच्छ ऊर्जा उपलब्ध ही नहीं हो पाएगी, लिहाजा वे इस समयसीमा के बाद भी बीएस-3 मानक वाले वाहन बेचते रहेंगे। लेकिन सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी जिस पर वाहन उद्योग ने खूब अचंभा जताया।
कुल मिलाकर कार निर्माताओं ने साफ नजर आ रही उस तस्वीर को देखने की कोशिश नहीं की जिसमें प्रदूषण और उससे होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं एक बड़ा सरोकार बनकर उभरी हैं। यह नीतिगत अनिश्चितता नहीं है। यह सार्वजनिक विमर्श और लोक नीति के प्रति आंख मूंदने जैसा है। इस पृष्ठभूमि में गडकरी का इलेक्ट्रिक एवं वैकल्पिक ईंधनों से चलने वाले वाहनों पर नीतिगत नेतृत्व दिखाना रोमांचक है। अब सवाल यह खड़ा होता है कि भारतीय सड़कों पर अधिक स्वच्छ ईंधन वाले वाहनों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए? हमें यह भी याद रखना चाहिए कि इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने की हमारे पास अनूठी वजहें हैं। अब भी भारत में वाहनों की गिनती काफी कम है, खासकर कारों की। अगर दिल्ली का ही उदाहरण लें तो यहां पर करीब 21 फीसदी लोगों के पास ही कारें हैं जबकि लगभग 40 फीसदी लोगों के पास दोपहिया वाहन हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक केवल 10 फीसदी भारतीयों के पास ही कारें थीं। इसका मतलब है कि मोटर वाहन अब भी एक बड़े तबके की पहुंच से दूर हैं। यह पहलू वाहन उद्योग के विस्तार की संभावनाओं को बयां करता है।
ई-वाहनों को लेकर हमारा नजरिया काफी अलग है। बाकी दुनिया में ई-वाहन अधिक स्वच्छ एवं ईंधन-सक्षम कारों से प्रतिस्पद्र्धा करने में खुद को पिछड़ता पा रहे हैं। अगर ई-वाहन प्राकृतिक गैस एवं कोयले से पैदा होने वाली बिजली का इस्तेमाल करते हैं तो फिर हम वातावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड को विस्थापित ही करेंगे न कि उसे खत्म कर सकेंगे। यानी ई-वाहनों का इस्तेमाल बढऩे पर भी प्रदूषण बरकरार रहेगा, वह कारों के साइलेंसर से न निकलकर ऊर्जा संयंत्रों की चिमनियों से निकलेगा। लेकिन ई-वाहन हमें शहरों के वायु प्रदूषण से राहत तो दिलाते ही हैं। गडकरी ने भी कहा है कि ई-वाहनों से कच्चे तेल के आयात पर खर्च होने वाला भारी खर्च कम करने में मदद मिलेगी। यहीं वजह है कि हमें ई-वाहन अपनाने की दिशा में अधिक साहसिक एवं आक्रामक होना होगा। अभी तक इस बारे में भारत की नीति ढुलमुल ही रही है। कुछ महीने पहले सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के मेरे सहयोगी ने हाइब्रिड एवं इलेक्ट्रिक वाहनों के त्वरित समेकन एवं विनिर्माण (फेम) के पहले चरण का विश्लेषण किया था। उससे पता चला कि सरकार की तरफ से लाई गई इस प्रोत्साहन योजना ने इलेक्ट्रिक मोबिलिटी बढ़ाने के नाम पर डीजल की औसत हाइब्रिड कारों को ही बढ़ावा दिया था। इस योजना का करीब 60 फीसदी उन कारों के ही हिस्से में चला गया जो न तो इलेक्ट्रिक थीं और न ही पूरी तरह हाइब्रिड। उसके बाद से हालात काफी बदल चुके हैं। संशोधित फेम योजना से औसत दर्जे की हाइब्रिड गाडिय़ों को मदद नहीं मिलेगी। इसमें इलेक्ट्रिक-बस पर भी जोर दिया गया है जिससे परिवहन क्षेत्र का परिदृश्य ही बदल जाने की संभावना है।
सबसे बड़ा पेच तो यही है। अधिकतर भारतीय निजी वाहनों से नहीं चलते हैं। यह कुछ बड़ा सोचने का मौका है ताकि हमें पहले कार और फिर साइकिल की तरफ न लौटना पड़े। हमें ऐसी नीतियां बनानी होंगी कि स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने वाले निजी वाहनों के साथ सार्वजनिक परिवहन के साधनों को भी बढ़ावा मिले। शहरों में लाइट रेल यानी ट्राम चलाना एक विकल्प हो सकता है। ट्राम बिजली से चलती है। इसके अलावा कुछ राजमार्गों का विद्युतीकरण कर उन पर बिजली-चालित बसें चलाई जा सकती हैं। उन बसों को जरूरत पडऩे पर रास्ते में ही चार्ज किया जा सकता है। अगर लोगों को उनके अंतिम गंतव्य तक पहुंचाने वाले वाहनों को भी इलेक्ट्रिक बनाया जा सके तो इससे आवागमन से संबंधित परिदृश्य ही बदल जाएगा।इसके लिए सजग सोच की जरूरत है। पहला बड़ा मसला इस सार्वजनिक ढांचागत क्षेत्र की लागत को कम करने के तरीके तलाशने का है। एक विकल्प है कि हम बड़े स्तर पर सार्वजनिक खरीद करें जैसा एलईडी लाइट के मामले में किया गया था। दूसरा विकल्प है कि वाहनों को इस तरह से बनाया जाए कि बैटरी के निर्माण की लागत उस वाहन की कीमत में न जुड़े। अगर हम ई-वाहनों के बजाय ई-परिवहन को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करें तो हमारे विकल्प भी बदल जाएंगे। यह हमारे सामने एक अवसर पेश करता है। इस बार तो हमें यह बस छोडऩी नहीं है।



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