कारोबारी सुगमता का आधार और विदेशी निवेश की बौछार

 

कनिका दत्ता
विश्व बैंक की कारोबारी सुगमता संबंधी रैंकिंग में भारत ने 30 स्थानों की छलांग लगाई है। इस चर्चा में यह बात पीछे रह गई कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के निवेश माहौल के लिए यह रैंकिंग कोई अहम संकेतक नहीं है। सरकार के इस संकेतक पर ध्यान केंद्रित करने की मुख्य वजह थी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) लेकिन इसमें भी कोई उल्लेखनीय असर देखने को नहीं मिलता।एफडीआई में सफलता का सामान्य मानक है इसकी कुल आवक का पता लगाना।
परंतु वर्ष 2017 में देश की क्षमताओं के प्रचार के लिए कड़ी मेहनत करने वाले औद्योगिक नीति एवं संवद्र्घन विभाग की ओर से जारी आंकड़ों से पता चलता है कि एफडीआई अत्यंत असमान वितरण वाला है। मिसाल के तौर पर अप्रैल 2000 से जून 2017 के बीच आधा से अधिक एफडीआई केवल दो ही क्षेत्रों में आया। एक तो महाराष्टï्र (इसमें दमन, दीव, दादरा और नगर हवेली) और दूसरा दिल्ली, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों (नोएडा और गाजियाबाद) और हरियाणा (मोटे तौर पर गुरुग्राम) में। विश्व बैंक का यह सूचकांक भी दिल्ली और मुंबई में कारोबारी सुगमता पर केंद्रित है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जो कि निम्न आय वाले श्रमिकों के गढ़ हैं, वहां बीते 17 साल में एक फीसदी से भी कम एफडीआई आया। बिहार और झारखंड की हिस्सेदारी तो केवल 0.03 फीसदी रही। एफडीआई को देश के कामगार वर्ग के लिए रोजगार सृजन का सबसे बड़ा जरिया माना जाता है।
परंतु करीब एक चौथाई (26 फीसदी) एफडीआई वेतनभोगी पेशेवरों के क्षेत्र में आया। इनमें से 18 फीसदी बैंकिंग, वित्त, बीमा और शोध विकास जैसे क्षेत्र में जबकि 8 फीसदी कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर के क्षेत्र में आया। विनिर्माण, वाहन, होटल और पर्यटन आदि क्षेत्र जहां श्रमिकों को काम मिलता है, वहां 5 से 7 फीसदी एफडीआई ही आया। कपड़ा और श्रम आधारित उद्योग जो बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देशों की तस्वीर बदल रहे हैं, वे शीर्ष 10 एफडीआई आकर्षित करने वाले क्षेत्रों में शामिल नहीं हैं। विदेशी निवेश के रुख के हिसाब से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश के कारोबार किस तरह निवेश करते हैं। समस्त भौगोलिकता को ध्यान रखा जाए तो भारत 100वीं रैंक के बावजूद कारोबार करने की दृष्टिï से बहुत अच्छी जगह नहीं है। कई लोग मानेंगे कि चीन का आर्थिक चमत्कार उसके पूर्वी तट तक सीमित था लेकिन भारत का संघीय ढांचा ऐसा है कि चीन के उलट वह आर्थिक नीति निर्धारण का केंद्रीकरण नहीं कर सकता। एफडीआई के इस असमान भौगोलिक वितरण के साथ एक विडंबना भी जुड़ी हुई है। अधिकांश प्रमुख राज्यों के नेताओं ने कारोबार को बढ़ावा देने की अपनी शुरुआती आनाकानी को त्याग दिया है। उनको यह बात समझ में आ गई है कि यह लोक कल्याण का एक अधिक प्रभावी तरीका है। यह सच है कि किसी भी कारोबारी के सहायक नेता के खिलाफ विकृत पूंजीवाद का आरोप लग सकता है।
इसके बावजूद तमाम राजनीतिक दलों के मुख्यमंत्री इन दिनों निवेश सम्मेलन का आयोजन कर रहे हैं। हालांकि नोटबंदी के बाद इसमें थोड़ा विराम आया है। इन आयोजनों का एक तयशुदा रुख है। कुछ बड़े कारोबारी और कुछ विदेशी कारोबारी प्रतिनिधि इनमें शिरकत करते हैं। राज्य में निवेश के माहौल को लेकर लंबे-चौड़े भाषण दिए जाते हैं, मुख्यमंत्री प्रदेश को कारोबारियों के लिए स्वर्ग बनाने का वादा करते हैं, समझौता ज्ञापनों के जरिये निवेश की भारी-भरकम प्रतिबद्घताएं जताई जाती हैं जबकि जमीन पर उसका बहुत मामूली हिस्सा नजर आता है। बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने इवेंट मैनेजमेंट की अद्भुत क्षमता का प्रदर्शन किया। उन्होंने इस तरह के सालाना आयोजन को स्टेडियम रॉक कंसर्ट के समकक्ष बना डाला। बतौर प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल के शुरुआती महीनों में भी उन्होंने इसे दोहराने की कोशिश की। यहां तक कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जिन्होंने टाटा की नैनो परियोजना को प्रदेश से बाहर निकलवा कर चुनाव में अभूतपूर्व जीत हासिल की थी, को भी कोलकाता में ऐसा जमावड़ा करना पड़ा। मोदी ने एक आंतरिक कारोबारी सुगमता सर्वेक्षण की मदद से इस प्रक्रिया को सहज बनाने का प्रयास किया। इस सर्वेक्षण में राज्यों को कुछ खास मानकों पर सूचीबद्घ किया गया। हालांकि इस कवायद को भी सीमित सफलता मिली। कुछ विपक्षी राज्यों ने इस रैंकिंग को राजनैतिक चश्मे से देखना शुरू किया। ममता बनर्जी बंगाल की औसत रैंकिंग को लेकर खासी असंतुष्ट दिखीं। परंतु मुख्य समस्या संस्थागत है। अधिकांश राज्यों के लिए निवेश जुटाना व्यक्तिगत और विवेकाधीन कार्य है जिसमें मुख्यमंत्री ही निवेशकों के लिए सबकुछ होता है। वैसे, देश के बाहर बहुत कम ऐसे कारोबारी होंगे जो अपनी पूंजी किसी स्थानीय नेता की सत्ता में बने रहने की क्षमता पर निवेश करना चाहेंगे।

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