नौसैनिक क्षमता में इजाफा जरूरी

प्रेमवीर दास,(लेखक पूर्वी नौसेना कमान के पूर्व कमांडर इन चीफ हैं। वह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद के सदस्य भी रह चुके हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं)
 हिंद महासागर क्षेत्र हमारे सुरक्षा हितों की दृष्टि से अहम है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में परिचालन सुविधाएं बढ़ाकर ही देश की नौसैनिक पहुंच में इजाफा और एक विश्वसनीय नौसेना स्थापित की जा सकती है। बता रहे हैं प्रेमवीर दास 
करीब चार दशक पहले अमेरिका के नेवल वार कॉलेज में मैंने अमेरिकी सेना से जुड़े लोगों के समक्ष कहा था कि हिंद महासागर में एकमात्र भारतीय चीज उसके नाम में लगा हिंद है। लोग इस बात पर हंसे लेकिन इसमें एक गंभीर बात यह छिपी है कि उन दिनों हमारे सामरिक सोच में हमारे आसपास का समुद्री क्षेत्र कितनी कम अहमियत रखता था। काफी पहले के एम पणिक्कर ने हमारे दीर्घकालीन हितों को लेकर हिंद महासागर के महत्त्व पर काफी कुछ लिखा था लेकिन अब से करीब 20 साल पहले तक हमारे देश के नेता इस क्षेत्र को देश की सुरक्षा की दृष्टिï से अहम नहीं मानते थे। कई तो शायद अभी भी ऐसा नहीं मानते हों। इस श्रेणी के लोगों के लिए जमीनी सीमाएं और उनका दृश्य और अदृश्य प्रभाव ही असली चुनौती होता है। फिर चाहे वह अवैध प्रवासी हों या अवैध व्यापार, आतंकवाद या मादक पदार्थ की तस्करी। उनके लिए यही वास्तविक खतरा है। इस साधारणीकरण को चुनौती देने की आवश्यकता है।
वैश्विक वाणिज्य का आधा से अधिक हिस्सा, खासतौर पर तेल और गैस का व्यापार हिंद महासागर क्षेत्र से ही संचालित होता है। इस क्षेत्र के कुछ रास्तों खासतौर पर सोमालिया से लगे रास्तों पर समुद्री डकैती बीते दिनों में चिंता का सबब रही है। यह सच है कि पहले के समय में यूरोपीय शक्तियां, मूलरूप से ग्रेट ब्रिटेन अपने साम्राज्य की स्थापना के क्रम में व्यापारिक समुद्री मार्गों पर नियंत्रण रखता था। परंतु बाद में स्थिति बदलने लगी क्योंकि औपनिवेशिक व्यवस्था का अंत होने लगा।
ब्रिटेन का प्रभाव जल्दी ही सिमट गया और उसकी जगह अमेरिका ने ले ली। हिंद महासागर क्षेत्र में भी उसका प्रभाव स्पष्टï था। बीते 50 वर्ष में वह इकलौता ऐसा देश है जो इस क्षेत्र में प्रभावशाली समुद्री शक्ति बना हुआ है। ब्रिटिश और अमेरिकी दोनों यह समझ चुके हैं कि उन्हें समुद्र में और आसपास ऐसे ठिकाने चाहिए जहां उनकी सेनाएं स्थापित रहें और लंबे समय तक जिम्मेदारी संभाल सकें। बहरहाल, ब्रिटेन ने इस क्षेत्र में जो ठिकाने बनाए थे उनका इस्तेमाल कबका बंद हो चुका। अब अमेरिका नियंत्रित डिएगो गार्सिया ही इस क्षेत्र का सबसे बड़ा विदेशी नौसैनिक अड्डïा है। अभी दो दशक पहले तक हम अमेरिका को इस क्षेत्र में सुरक्षा मुहैया कराने वाली शक्ति के रूप में मान्यता देकर संतुष्टï थे। यानी जरूरत पडऩे पर तटीय मदद और सहायता पहुंचाना और नीतिगत लक्ष्यों की पूर्ति में मददगार बनना। चीन भी इस क्षेत्र के माध्यम से बहुत बड़े पैमाने पर ऊर्जा का आयात करता है। यही वजह है कि वह भी इस क्षेत्र में दखल चाहता है। चीन के जहाज और पनडुब्बियां इस क्षेत्र में प्राय: नजर आते हैं।
हालांकि ऐसी सुविधाएं कभी किसी नौसैनिक अड्डे जैस्ी सुविधाएं नहीं दे सकती हैं इसलिए चीन पाकिस्तान में ग्वादर और अफ्रीका में जिबूती में अपने ठिकाने कायम करना चाह रहा है। ये दोनों ही एक बार में 10,000 लोगों को संभाल सकते हैं। सेशेल्स में ऐसा अड्डा विकसित करने की चर्चा भी चल रही है। इनमें से किसी को भी नौसैनिक अड्डा नहीं कहा जा सकता है लेकिन इनसे चीन और हिंद महासागर क्षेत्र को आधार तो मिलेगा।भारत को अपने समुद्री हितों को इसी संदर्भ में देखना चाहिए। चीन की शत्रुतापूर्ण मौजूदगी हमारे लिए बड़ा जोखिम हो सकती है। इसके अलावा जरूरत पडऩे पर हम भी चीन की आपूर्ति शृंखला को रोक सकते हैं। हमें इसके लिए क्षमता विकसित करनी चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो भी इस क्षेत्र की ताकत के रूप में अन्य लोग भारत को भारत को सुरक्षा प्रदाता के रूप में देखें।
अमेरिका के अलावा केवल चीन और भारत के पास हिंद महासागर क्षेत्र में ताकत है। चीन के पास समुद्री क्षेत्र के लिए मजबूत मंच हैं लेकिन गतिविधियां चलाने के लिए अब तक कोई अड्डा नहीं है। जबकि भारत के पास क्षेत्रीय मौजूदगी के साथ बुनियादी ढांचा है लेकिन संख्या नहीं। इसलिए यदि हमें क्षेत्र में चीन का मुकाबला करना है तो हमें अपनी समुद्री शक्ति बढ़ानी होगी।हमें अपनी नीति में इस क्षेत्र की समुद्री ताकतों के बीच साझा संबंधों पर जोर देना चाहिए। इनमें अमेरिका के अलावा जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण में दक्षिण अफ्रीका और मोजांबिक भी शामिल हैं। उत्तरी मार्ग पर मॉरीशस और सेशेल्स जैसे द्वीप राष्ट्र हैं। खाड़ी देशों के अलावा श्रीलंका और मालदीव जैसे पड़ोसी देश भी हमारे सहयोगी हो सकते हैं। इन सभी स्थानों पर अड्डे नहीं कायम किए जा सकते हैं लेकिन परिचालन सुविधा की मदद से हम इस क्षेत्र में एक विश्वसनीय शक्ति बन सकते हैं।
जमीन से जुड़ा राज्य समर्थित आतंकवाद और यदाकदा सर उठाने वाले सीमा विवाद जल्दी नहीं समाप्त होने वाले लेकिन इनकी बदौलत युद्ध होने की आशंका भी बेहद कम नजर आ रही है। असली चुनौती हिंद-प्रशांत क्षेत्र मे आएगी जहां हमारी समुद्री क्षमताओं और समस्याओं से निपटने की कुव्वत की असली परीक्षा होगी। यही वह क्षेत्र है जहां हमारी तुलना दो संभावित प्रतिद्वंद्वियों से होगी। बल्कि कहा जाए तो वे दोनों देश हमसे श्रेष्ठ हैं। चीन इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि हम अहम ऊर्जा स्रोत लेकर आ रहे उसके जहाजों को इस क्षेत्र में रोक सकते हैं। मुंबई और विशाखापत्तनम के मौजूदा नौसैनिक अड्डों के बाद कारवार में तीसरा अड्डा विकसित होने से हमारी क्षमता और अधिक बढ़ जाएगी। इसके साथ ही हमें अंडमान और निकोबार द्वीप पर भी अपनी क्षमताओं को उन्नत बनाना चाहिए। ऐसा करके हम समूचे बंगाल की खाड़ी क्षेत्र पर नजर रख पाएंगे।हम इस क्षेत्र में अपनी ताकत बढ़ाना तो दूर उसे बरकरार भी नहीं रख पाए हैं। इन कमियों को तेजी से दूर करना होगा। खासतौर पर पनडुब्बी निर्माण के क्षेत्र में क्योंकि उनकी तादाद तेजी से गिरी है। ऐसे जहाज भी अहम हैं जो मनचाही तादाद में सेना को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा सकें। खेद की बात है कि हमारी निर्णय प्रक्रिया बेहद धीमी है। इस वजह से भी हमारी समुद्री क्षमता प्रभावित हुई है। सभी सैन्य मंच बनने में वक्त लेते हैं। जहाज निर्माण में तो और ज्यादा समय लगता है। ऐसे में जरूरत आन पड़ी है कि इस काम को गति प्रदान की जाए।

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