विश्व व्यापार संगठन और कृषि पर मंडराता खतरा


केसी त्यागी, वरिष्ठ जद-यू नेता
चंद रोज बाद अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में आयोजित विश्व व्यापार संगठन की 11वीं मंत्रीस्तरीय बैठक भारत के लिए कई मायने में अहम है। एक तरफ जहां देश अपने किसानों की आत्महत्याओं, एमएसपी बढ़ाने और कर्ज-माफी जैसे मुद्दों पर विरोध-प्रदर्शन व असंतोष का दंश झेल रहा है, वहीं दूसरी तरफ इसे कई तरह के वैश्विक दबावों का सामना भी करना पड़ रहा है। यह सम्मेलन उस समय हो रहा है, जब देश भर के किसान फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग के साथ नई दिल्ली के संसद मार्ग पर आंदोलनरत हैं। इस स्थिति में केंद्र सरकार के साथ धर्मसंकट है कि वह देश के किसानों और विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित करे? एक तरफ अपने किसानों की रक्षा का सवाल है, तो दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय मंच को संतुष्ट करने की प्रतिबद्धता भी है। विश्व व्यापार संगठन की आगामी बैठक भारत और विकासशील व अल्प विकसित राष्ट्रों के लिए चुनौतीपूर्ण इसलिए है, क्योंकि इससे स्थानीय जनसंख्या के सबसे बड़े तबके के सरोकार जुड़े हुए हैं और उन पर अंतरराष्ट्रीय फैसला थोपे जाने का खतरा भी मंडरा रहा है। वर्ष 2001 के दोहा डेवलपमेंट एजेंडा के तहत वर्ष 2013 तक निर्यात पर दी जाने वाली सब्सिडी यानी ‘एक्सपोर्ट सब्सिडी’ और अन्य सहयोग समाप्त करने जैसे विषय पर सहमति थोपी गई थी, लेकिन भारत ने कृषि को यहां का जीवन माध्यम बताकर अपना मजबूत पक्ष रखते हुए विकासशील देशों द्वारा कृषि के अंतरराष्ट्रीय व्यापार और वाणिज्य व्यवस्था को विकृत करने की अपनी जिम्मेदारी से किनारा कर लिया था।
एक बड़ा सच यह है कि विश्व व्यापार संगठन में विकसित देशों का नीतिगत वर्चस्व है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भी बड़ी भागीदारी होने के कारण वे तीसरी दुनिया के मुल्कों पर अपना उत्पाद थोपने हेतु बाजार की तलाश में हैं। उनका प्रचार रहा है कि विश्व व्यापार संगठन व क्षेत्रीय व्यापार समझौतों के बाद खुली आयात की स्वतंत्रता होगी, जिससे खान-पान की वस्तुओं की कीमतों में कमी आएगी। यूरोपीय देशों की इस मंशा के पीछे भारतीय व अविकसित राष्ट्रों के बाजारों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास है। पिछले 22 वर्षों के इतिहास में विश्व व्यापार संगठन के कृषि संबंधी समझौतों ‘एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर’ का विकसित देशों द्वारा सिर्फ अपने हित में इस्तेमाल किया गया है। हैरानी है कि अमेरिका व अन्य औद्योगिक राष्ट्र आर्थिक संपन्नता के बावजूद अपने किसानों को भारी कृषि सब्सिडी देते हैं, जबकि इसके इतर भारत जैसे कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के लिए किसान विरोधी कानून बनाने का दबाव डालते आ रहे हैं। आंकड़े दर्शाते हैं कि विकसित देशों द्वारा किसानों को दी जाने वाली कृषि सब्सिडी में इजाफा होता रहा है। इस दिशा में भारत-चीन ने संयुक्त प्रस्ताव रखा है कि यूरोपीय संघ व अमेरिका जैसे राष्ट्र पहले अपने यहां से 160 बिलियन डॉलर की सब्सिडी देना बंद करें, जबकि इस बीच भारत में उर्वरक, सिंचाई और बिजली पर सब्सिडी जारी है।भारत पहले से ही साधन-संपन्नता की श्रेणी में पीछे है। यहां 95 फीसदी से ज्यादा भू-स्वामी या तो गरीब हैं या फिर साधनविहिन। कुल कृषि भूमि की आधे से ज्यादा भूमि गैर सिंचित है। पिछले 21 वर्षों में 3,18,528 किसानों ने आत्महत्या की है। प्रति वर्ष औसतन 15,168 किसान आत्महत्या को मजबूर होते हैं। ज्यादातर मामलों में आत्महत्या का कारण बैंकों से मिला कर्ज है। वर्तमान एमएसपी किसानों को घाटे की ओर ले जा रही है, जिसे बढ़ाने के लिए किसान निरंतर संघर्षरत हैं। कई राज्यों में धान में नमी की मात्रा बताकर एमएसपी से भी कम कीमत दिए जाने की शिकायतें हैं। गन्ना उत्पादकों के साथ भी ऐसी ही समस्या है। मौसमी फल, सब्जी समेत कई उत्पादों पर एमएसपी का प्रावधान नहीं है। इस स्थिति में उत्पादन के समय कीमतें शून्य और बाद में गगनचुंबी हो जाती हैं। उपज कौड़ी के भाव बिकती है, जिसका सीधा नुकसान किसान को होता है। बाद में वही टमाटर 100 रुपये प्रति किलो के भाव बिकता है। जरूरत है कि भारत खाद्य सुरक्षा और किसानी के मुद्दों पर पिछले अवसरों की तरह न सिर्फ अडिग रहे, बल्कि बढ़ती महंगाई के समवर्ती सुधार के नए प्रस्ताव भी रखे।

Comments