म्यांमार के साथ रिश्तों को दोबारा आंकने का वक्त


नितिन पई 
आम धारणा के उलट भारत म्यांमार के साथ सख्त रुख अपना  सकता है। उसे ऐसा करना भी चाहिए। ऐसा क्यों, यह विस्तार से बता रहे हैं नितिन पई
एक हद तक ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की राजनीतिक अर्थव्यवस्था और दूसरा जातीय बमर (स्थानीय निवासी) राष्टï्रवाद के कारण म्यांमार (पहले बर्मा) में हमेशा भारत देश और भारतीय नागरिकों के प्रति एक किस्म का बैर भाव है। इस पुरानी भावना की जड़ें 19वीं सदी के आखिर में निहित हैं। यह वह दौर था जब भारतीय साहूकारों, मध्यम वर्ग के पेशेवरों और श्रमिकों ने ब्रिटिश उपनिवेश बर्मा का रुख किया। यह शत्रु भाव सन 1947-48 में भी बरकरार था जब ब्रिटिश वहां से बाहर निकले और उत्तर औपनिवेशिक नागरिकता संबंधी नियमों में भी इनको महसूस किया जा सकता है।इसके पश्चात सन 1962 में जनरल ने विन सत्ता में आए और उन्होंने लाखों भारतीयों को वहां से वापस भेज दिया। इन सबको 175 क्यात का मामूली हर्जाना दिया गया। यहां तक कि औरतों को अपने मंगलसूत्र तक नहीं ले जाने दिए गए। इससे पहले सन 1930, 1942 और अंग्रेजों के जाने के बाद 1948 में भी ऐसा हो चुका था। रोहिंग्या मुसलमानों को बाहर निकालने का मौजूदा सिलसिला इसी कड़ी का अगला हिस्सा है। फिलहाल भारतीयों को (चाहे उनका धर्म कुछ भी हो) को अवमाननापूर्वक काला (दूसरे ग्रह का वासी) कहकर पुकारा जाता है। तमिल समुदाय जो म्यांमार में बना रहा उसे मजबूरी में बर्मी नाम, भाषा और रस्मो रिवाज अपनाने पड़े हैं। सन 1948 में बर्मा की 16 फीसदी आबादी भारतीय थी। आज यह महज 2 फीसदी बची है। कई मायनों में देखा जाए तो म्यांमार, भारत, मलेशिया या इंडोनेशिया के बजाय पाकिस्तान की तरह है। वहां भी हिंदुओं की आबादी समान अवधि में 15 फीसदी से घटकर 2 फीसदी रह गई है।इससे भी बुरी बात यह है कि हालांकि म्यांमार में अब नया संविधान और अद्र्घ लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था है लेकिन वहां मूल भावना अभी भी बमर बहुसंख्यकवाद की है जो आधा दर्ज महत्त्वपूर्ण जातीय अल्पसंख्यक समुदायों को समायोजित करने को तैयार नहीं है। म्यांमार और वहां का समाज जिस तरह रोहिंग्या समुदाय के अस्तित्व तक से इनकार कर रहा है वह इसका उदाहरण है। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं है कि सभी बमर या म्यांमार के लोग भारतीयों के खिलाफ एक समान और इस कदर पूर्वग्रह रखते होंगे। परंतु, बहुसंख्यक राजनीतिक संस्कृति में भारत विरोध मजबूत स्थान रखता है और सरकार के कदमों में भी नजर आता है।
लोग चाहें तो इसे किसी दूसरे देश का घरेलू मामला कहकर रफादफा भी कर सकते हैं लेकिन अंतरराष्टï्रीय संबंधों में यह बात बहुत मायने नहीं रखती। बहरहाल, कम से कम ने विन के कार्यकाल में म्यांमार सरकारों ने भारत के साथ अनुरूपता का कोई संकेत नहीं दिया। हां, सन 1990 के दशक के आखिर से म्यांमार की सेना ने भारतीय सुरक्षा बलों के साथ उपद्रवियों के खिलाफ कार्रवाई में तालमेल अवश्य किया। इससे यह प्रश्न उठना चाहिए कि पहली बात तो वे म्यांमार की सीमा में क्या कर रहे थे या वहां क्यों हैं? इतना ही नहीं बीते कुछ दशकों के दौरान वहां सत्ताधारी सैन्य शासन ने पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिकों, मादक पदार्थ और हथियार तस्करी करने वालों को शरण दी और चीन को ऐसे स्टेशन बनाने दिए जहां से वह दूसरों के इलेक्ट्रॉनिक संवाद सुन सके। बीते तीन दशक से भारत म्यांमार को खुश करने की कोशिश कर रहा है। यह कोशिश कभी उसकी पूर्व नीति के रूप में तो कभी, उपद्रवियों से निपटने की कोशिश के रूप में, कभी ऊर्जा तो कभी चीन को संतुलित करने के प्रयास के रूप में सामने आती है लेकिन नतीजा सिफर। संचार, ऊर्जा आदि क्षेत्रों में कई परियोजनाएं हैं जो निर्माणाधीन हैं। परंतु कोई खास सफलता नहीं मिल सकी है। देश का विदेश नीति प्रतिष्ठान भी चीन के हाथों पिछडऩे के डर से वहां एक तरह से इस्तेमाल ही हो रहा है। सच यह है कि म्यांमार हमारी पूर्व नीति के लिहाज से अव्यावहारिक है। हमारा समुद्री और हवाई संपर्क पर्याप्त है और हम उसका विस्तार करके आसानी से दक्षिण पूर्वी एशियाई बाजारों तक पहुंच बना सकते हैं। भारतीय निवेशकों को भारत विरोधी रुख रखने वाले म्यांमार के बजाय बांग्लादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर और वियतनाम में निवेश करना चाहिए। यह आंकड़ों में भी नजर आता है। सन 2015 में करीब 35,000 भारतीय म्यांमार गए जबकि इसी अवधि में 1.5 लाख चीनी नागरिक वहां पहुंचे। उस वर्ष करीब 73 करोड़ डॉलर का निवेश भारतीयों ने किया जो म्यांमार के कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का करीब 1.4 फीसदी था। इसकी तुलना में चीन ने 18 अरब डॉलर का निवेश किया यानी कुल एफडीआई का 34 फीसदी।
जहां तक उपद्रवियों का मुकाबला करने की बात है, म्यांमार ऐसा इसलिए कर रहा है क्योंकि यह उसके हित में है। यह पहल उतनी ही है जितनी उसकी जरूरत है। यहां भी म्यांमार की भूमिका को अक्सर बढ़ाचढ़ाकर पेश किया जाता है। इसके बाद मामला आता है भय का। भारत हमेशा आशंकित रहता है कि कहीं म्यांमार चीन की रहनुमाई न स्वीकार कर ले। ऐसा करते हुए हम बमर राष्टï्रवाद की मौजूदगी की अनदेखी करते हैं। म्यांमार के बुर्जुआ हमेशा से भारत और चीन के दबदबे में आने को लेकर भयभीत रहते हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि आज की तारीख में चीन का दबदबा कहीं अधिक स्वीकार्य हो गया है।भारत को इस क्षेत्र को अपनी भूराजनैतिक असुरक्षा के नजरिये से नहीं देखना चाहिए। मौजूदा नीति इस मुद्दे से ठीक से नहीं समझ रही। ऐसा नहीं है कि म्यांमार को चीन के रसूख तले आने से बचाने के लिए भारत को उसके साथ प्रगाढ़ता बढ़ानी ही होगी। बल्कि म्यांमार को भारत की आवश्यकता है ताकि वह चीन के दबदबे से बच सके। भारत को सैन्य सत्ता के साथ इस हद तक रिश्ता कायम नहीं करना चाहिए। अगर म्यांमार चीन की ओर झुकता है तो झुकने दें। आज नहीं तो कल उसे भारत को पुकारना ही होगा।रोहिंग्या संकट के बाद बांग्लादेश और म्यांमार के बीच तनाव बढ़ा है। यह लंबे राजनीतिक विवाद में बदल सकता है। दोनों देशों की सेनाएं भी आमने-सामने आ सकती हैं। भारत अगर दोनों देशों से समान दूरी बरतता है तो यह बड़ी गलती होगी। कुछ लोग कहेंगे म्यांमार बौद्घों का देश है इसलिए भारत के प्रति उसका सकारात्मक झुकाव होगा। इतिहास और अनुभव बताता है कि ऐसा कुछ नहीं है। निश्चित तौर पर बांग्लादेश भारत के लिए कहीं अधिक अहमियत रखता है। देश के दोनों प्रमुख दलों में से एक भारत समर्थक है और दूसरा भारत का विरोधी। जैसा कि मैंने पिछले महीने अपने स्तंभ में कहा था। भारत को रोहिंग्या मसले पर बांग्लादेश का समर्थन करना चाहिए और ढाका के प्रयासों के लिए अंतरराष्टï्रीय समर्थन जुटाने का प्रयास करना चाहिए। मोदी सरकार को म्यांमार के साथ सख्त रुख अपनाना चाहिए। आम सोच के उलट भारत ऐसा कर सकता है।

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